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दशरथ मांझी (जन्म: 14 जनवरी 1934 – 17 अगस्त 2007 ), जिन्हें माउंटेन मैन के नाम से जाना जाता है, एक असाधारण व्यक्तित्व थे। उनकी कहानी धैर्य, संकल्प (grit, determination), और अटूट प्रेम की मिसाल है। 1934 में बिहार में गया के पास एक छोटे से गांव गहलौर में जन्मे दशरथ समाज के मुसहर समुदाय से थे। कठिनाईयों से भरी उनकी जिंदगी इस बात का प्रमाण है कि इंसान क्या कुछ हासिल कर सकता है, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हों।

जीवन का निर्णायक मोड़

दशरथ मांझी का जीवन मेहनत और संघर्ष से भरा था। काफी कम उम्र में वह अपने घर से भाग गए और धनबाद की कोयले की खानों में काम किया। वापस गाँव आकर भी वे एक भूमिहीन मजदूर के रूप में काम करते थे और अपने परिवार का पेट पालते थे। गहलौर गांव में उन दिनों न बिजली थी, न पानी, और स्वास्थ्य सुविधाओं, शिक्षा और बाजार जैसी बुनियादी सेवाओं की भी भारी कमी थी। ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों से घिरा होने की वजह से यह पास के शहरों से पूरी तरह कटा हुआ था, ऐसे में छोटी से छोटी जरूरत के लिए पास के कस्बे जाने के लिए एक पूरा पहाड़ (गहलोर पर्वत) पार करना पड़ता था या उसका चक्कर लगाकर जाना पड़ता था।

1959 में दशरथ मांझी की जिंदगी ने एक दर्दनाक मोड़ लिया। उनकी पत्नी, फाल्गुनी देवी, गंभीर रूप से बीमार हो गईं। उन्हें अस्पताल ले जाने के लिए दशरथ को दुर्गम पहाड़ों को पार कर 70 किलोमीटर दूर जाना पड़ा। लंबी और कठिन यात्रा, समय पर इलाज ना मिलने के कारण फाल्गुनी देवी ने दम तोड़ दिया। उनकी मृत्यु ने दशरथ को अंदर से तोड़ दिया, और उन्होंने तय किया कि वे अपने गांव के लोगों को इस तकलीफ से बचाने के लिए कुछ करेंगे।

एक असंभव कार्य की शुरुआत

बस एक हथौड़ी, छेनी और फावड़े के सहारे, दशरथ मांझी ने एक असंभव मिशन की शुरुआत की: उन्होंने उस 300 फीट ऊंचे पहाड़ को काटकर रास्ता बनाने की ठानी, जिसने उनके गांव और नजदीकी शहर के बीच दीवार खड़ी कर रखी थी।

1960 से 1982 तक, पूरे 22 वर्षों तक दशरथ मांझी ने दिन-रात मेहनत की। कड़ी धूप और सर्द रातों का सामना करते हुए उन्होंने अकेले ही इस काम को अंजाम दिया। उनके पास आर्थिक सहायता नहीं थी, और गांव के लोग उन्हें पागल कहकर ताने मारते थे। लेकिन उनकी दिवंगत पत्नी के प्रति प्रेम और अपने समुदाय के जीवन को बेहतर बनाने की चाह ने उन्हें अडिग बनाए रखा।

आशा का मार्ग

1982 में दशरथ मांझी ने अपना असाधारण कार्य पूरा कर लिया। केवल एक हथौड़ा और छेनी लेकर इन्होंने अकेले ही 360 फुट लंबी 30 फुट चौड़ी और 25 फुट ऊँचे पहाड़ को काट के एक सड़क बना डाली जिससे गहलौर और नजदीकी शहर के बीच की दूरी 70 किलोमीटर से घटकर केवल 15 किलोमीटर रह गई।

यह उपलब्धि केवल इंजीनियरिंग का करिश्मा नहीं थी, बल्कि मानवीय दृढ़ता का प्रतीक थी। उनके बनाए रास्ते ने गांव के लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा और रोजगार के अवसरों के करीब ला दिया और उनकी जिंदगी को हमेशा के लिए बदल दिया।

सम्मान और विरासत

दशरथ मांझी की मेहनत और संघर्ष ने बाद में राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित किया। बिहार सरकार ने उन्हें सम्मानित किया, और उन्हें भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति से मिलने का मौका भी मिला। हालांकि, दशरथ मांझी ने अपनी सादगी बनाए रखी और साधारण जीवन जीते रहे।

2007 में कैंसर के कारण उनका निधन हो गया, लेकिन वे अपनी प्रेरणादायक विरासत छोड़ गए। उनकी कहानी को किताबों, डॉक्यूमेंट्रीज़ और 2015 की बॉलीवुड फिल्म मांझी: द माउंटेन मैन में अमर कर दिया गया। 26 दिसंबर 2016 को इंडिया पोस्ट द्वारा “बिहार के व्यक्तित्व” श्रृंखला में दशरथ मांझी पर एक डाक टिकट जारी किया गया।

दशरथ मांझी के जीवन से सीखें

दशरथ मांझी का जीवन हमें यह सिखाता है कि कोई भी बाधा इतनी बड़ी नहीं होती जिसे पार न किया जा सके। उनकी कहानी हमें दृढ़ संकल्प, प्रेम की ताकत, और निस्वार्थ सेवा का महत्व सिखाती है।

इस संघर्षपूर्ण दुनिया में दशरथ मांझी का जीवन उम्मीद की किरण की तरह है, यह दिखाने के लिए कि एक व्यक्ति के अडिग इरादे पहाड़ों को भी हिला सकते हैं। दशरथ मांझी केवल एक व्यक्ति नहीं थे, वे एक प्रकृति की ताकत थे। उनकी प्रतिबद्धता ने एक व्यक्तिगत त्रासदी को पूरे समुदाय की विजय में बदल दिया और आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा दी।

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